Wednesday, June 20, 2012

लायब्ररी

दादाजी और दादी के कमरे में दिवार में बनी, कांच के दरवाजे वाली लायब्ररी हैं
ब्राउन कवर डाले हुए किताबों से झाकतें हैं कांट, राधाकृष्णन, रसेल, और तुकाराम भी
हर बार घर आता हूँ तो इस खजाने से कुछ न कुछ ले ही जाता हूँ


दादी अब कभी-कभी कहती हैं सब किताबें ले जाओ एक ही बार
बहोत धुल हो रही हैं
वैसे दादी की भी ढेर सारी किताबें हैं लायब्ररी इस में
फिर भी


बहुत सी किताबों में अंडरलाइन किया हुआ हैं
वह लाइनें पढ़ता हूँ तो लगता हैं, मेरे ही साथ बैठके पढ़ रहे हो दादाजी


मैं चौथी में था तो मॅथ्स पढ़ाते थे
घर की पिछली शेड में बिठाकर
आज लगता हैं इन बड़े लेखकों समझाने के लिए होते तो क्या मजा आता


जैसे नए किताबों को खुशबुएँ होती हैं
पुराने किताबों को भी आती हैं, धुल झटकने के बाद