Saturday, May 19, 2012

शहर की हवा...



पता नहीं क्यूँ आजकल ये पेडोंके पत्ते 
मुझे हरे नहीं लगते 
न देते हैं ठंडक मेरी आखों को
न सुकून मेरे मन  को 

पता नहीं क्यूँ आजकल ये शाम की ठंडी हवा 
आवाज़ नहीं देती मुझे 
ना लाती हैं खुशबू 
पडौस के पारिजात की 

पता नहीं क्यूँ आजकल ये रास्ते  
कुछ ज्यादाही ख़ाली लगने लगे हैं मुझे 
बसें, गाड़ियां और मोटरें ही दिखती भागती हुई 
इंसानों को जैसे घेर लिया हो रफ्तारों ने 

वह रंग, वह खुशबूएं, वह इन्सान, उनके रंग, उनकी खुशबूएं 
जैसे बहा ले गयी ये शहर की हवा...

2 comments:

  1. हि कविता वाचून
    सिने मे जलन ह्या गाण्याची आठवण झाली.
    मस्तच

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